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टेलीकाॅम कंपनियां संकट में हैं या सरकार पर दबाव बनाने के खेल में

क्या भारत का दूरसंचार उद्योग डूबने की कगार पर है? या भारत का दूरसंचार उद्योग पर किसी खास घराने का एकाधिकार होने वाला है? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि दूरसंचार के एक बड़े औद्योगिक समूह ने खुलेआम यह ऐलान कर दिया है कि वह अब इस क्षेत्र में कोई पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं है, सरकार चाहे तो उस कपंनी में उसकी हिस्सेदारी को जब्त कर ले, या किसी और निजी कंपनी को दे दे या मन करे तो उसकी इक्विटी को किसी वित्तीय कंपनी को दे दे, यह कंपनी है वोडाफोन के तत्कालिन चेयरमैन और भारतीय उद्योग जगत के जाने माने उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला।

Kumar mangalam birla will be chairman of merged voda and idea entity
कुमार मंगलम बिड़ला ने इसी जुलाई में कैबिनेट सचिव को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने वोडाफोन आइडिया में अपनी हिस्सेदारी सरकार या सरकार द्वारा अनुमोदित किसी भी कंपनी को मुफ्त में देने की पेशकश की। और 4 अगस्त को, श्री बिड़ला ने वोडाफोन आइडिया के अध्यक्ष के रूप में इस्तीफा भी दे दिया।
सरकार भी इस उहापोह में है कि दूरसंचार उद्योग की मांग के अनुसार उनकी सभी देनदारियों को टाल दे, उनके कहे अनुसार राजस्व भागीदारी के फार्मूले को बदल दे या इस उद्योग के लिए कोई बड़ा पैकेज जारी करे या फिर पूर्व की तरह इन पर उगाही का दबाव डाले।

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दरअसल भारत के दूरसंचार उद्योग का निजीकरण किया गया तभी से आज से तक यह उद्योग तमाम विवादों और कानूनों अड़चनों में उलझता आया है, भारत सरकार की निजीकरण की नीति ने सरकारी दूरसंचार कंपनियों केा अपनी मौत मरने दिया और तमाम संपतियों और व्यवसाय को निजी हाथों में जाने दिया। अब वहीं निजी कंपनियां सरकार और ग्राहक दोनों को दर्द देने में लगी है। सरकार को  राजस्व का हिस्सा नहीं मिल रहा है और नकदी संकट का हवाला देने वाली कंपनियां अब इस क्षेत्र में कोई नया निवेश नहीं कर रही हैं जिसके कारण दूरसंचार क्षेत्र के ग्राहकों को ना तो सही नेटवर्क मिल पा रहा है और ना सही डेटा।

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सितंबर के दूसरे सप्ताह में ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नकदी संकट से जूझ रहे दूरसंचार उद्योग के लिए राहत पैकेज जारी करने को मंजूरी दे दी है। इस राहत पैकेज में राजस्व हिस्सेदारी के रूप में देय बकाया के भुगतान के लिए चार साल की मोहलत देने, राजस्व की गणना में गैर-दूरसंचार सेवा से प्राप्त राजस्व को बाहर करने और अनुपयुक्त स्पेक्ट्रम को सरकार को वापस करने का विकल्प खोलने के विकल्प हो सकते हैं।
वास्तव में देखे तो निजी कंपनियों की सारी लड़ाई समायोजित सकल राजस्व, जिसको एजीआर कहते हैं, को अपने तरीके से परिभाषित कराने की है। दूरसंचार कंपनियों को कहना है कि सरकार सिर्फ टेलीकाॅम सेवाओं से प्राप्त राजस्व में ही अपनी हिस्सेदारी करे ना कि टेलीकाॅम कंपनियों की अन्य मदों से प्राप्त आमदनी में किसी हिस्सेदारी का दावा करे। इस समय सरकार उन वसूली को भी राजस्व का हिस्सा मानती है जो टेलीकाॅम कंपनियों के खाते में दर्ज होती हैं,  जिनमें शेयर इनकम, रेंट इनकम, प्रापर्टी इनकम और लाभांश भी शामिल होते हैं। इसे लेकर कंपनियां काफी दिनों से अदालती लड़ाइयां भी लड़ रही हैं।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि 1994 में दूरसंचार क्षेत्र के निजीकरण के लिए राष्ट्रीय दूरसंचार नीति (एनटीपी) की घोषणा की गई थी। सबसे पहले एक निश्चित लाइसेंस शुल्क के बदले में लाइसेंस जारी किए गए, लेकिन चार साल में ही लाइसेंस शुल्क देकर टेलीकाॅम सेवा देने वाली कंपनियां सरकार पर दबाव बनाने में कामयाब हो गई और यह तर्क दिया जाने लगा कि निश्चित लाइसेंस शुल्क बहुत अधिक है और सरकार इसके बदले राजस्व की हिस्सेदारी वाली नीति लाए।
वर्ष 1999 में वाजपेयी सरकार ने नई टेलीकाॅम नीति की घोषणा की जिसमें कंपनियों की मांग के अनुसार राजस्व साझेदारी का मॉडल लागू कर दिया गया। निजी क्षेत्र की कंपनियों ने इस माॅडल का भरपूर फायदा उठाया और कई विदेशी कंपनियों के साथ इक्विटी भागीदारी कर मोटे मुनाफे कमाए। इस बीच पहले जो 26 प्रतिशत विदेशी निवेश को जो मंजूरी दी गई थी उसे बढ़ाकर शत प्रतिशत कर दिया गया।
अब निजी दूरसंचार  कंपनियों को इस राजस्व हिस्सेदारी के माॅडल में भी परेशानी हो रही है। अब वे सकल राजस्व को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग कर रही हैं और लगभग एक दशक से अधिक समय से कानूनी लड़ाई में उलझी हुई हैं। निजी कंपनियां राजस्व सरकार के लिए राजस्व की गणना निवेश या संपत्ति की बिक्री या किराए से प्राप्त आय को बाहर करना चाहती है। जबकि पिछले साल अक्टूबर में अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एजीआर की पुरानी व्याख्या को सही माना और निर्देश दिया है डीओटी की व्याख्या को बरकरार रखा जाए और इसी आधार पर निजी कंपनियों को भुगतान के लिए कहा जाए।

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सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को रिलायंस, टाटा और काफी हद तक एयरटेल ने भी मान लिया है लेकिन वोडाफोन आइडिया इसे मानने में अपनी लाचारी व्यक्त की है और खुद को दिवालिया घोषित करने की धमकी दी है। वोडाफोन आइडिया आदित्य बिड़ला समूह और यूके स्थित वोडाफोन के बीच एक संयुक्त उद्यम है। यदि वोडाफोन आइडिया भी दूरसंचार क्षेत्र से बाहर हो जाती है तो ऐसा करने वाली 10 बड़ी कंपनियों में वह शामिल हो जाती है। इसका मतलब है कि धीरे धीरे दूरसंचार क्षेत्र कुछ खास कंपनियों का एकाधिकार स्थापित होने जा रहा है। अंदेशा इस बात का भी है एयरटेल भारती ने भी दूरसंचार छोड़ने का मन बना लिया है।
इस समय वोडाफोन आइडिया पर लगभग 1.8 लाख करोड़ रुपये की देनदारी है। जिसमें  96,270 करोड़ रुपये का स्पेक्ट्रम लाइसेंस के रूप में, 60,000 करोड़ रुपये एजीआर बकाये के रूप में और 23,080 करोड़ रुपये का बैंक ऋण के रूप में। सुप्रीम कोर्ट ने बकायों के भुगतान के लिए निजी कंपनियों को 10 साल का समय दिया है।

यह अपने आप में एक बड़ी विडंबना है कि भारतीय दूरसंचार उद्योग दिन प्रति दिन आगे बढ़ रहा है और दूरसंचार कंपनियां दिवालिया हो रही हैं। इस समय भारत में 116 करोड़ टेलीफोन उपभोक्ता हैं। जीएसएम एसोसिएशन के अनुसार भारतीय मोबाइल अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महत्वपूर्ण योगदान कर रही है। 2019 में ही भारत ऐप डाउनलोड करने वाले में दुनिया का दूसरा सबसे देश बन गया। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) मानदंड से देखे तो यह क्षेत्र देश में सबसे तेजी से बढ़ते शीर्ष पांच रोजगार देने वाला क्षेत्र है।
दूरसंचार क्षेत्र का सकल राजस्व मार्च 2021 की तिमाही में 68,228 करोड़ रुपये था। उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (डीपीआईआईटी) के अनुसार अप्रैल 2000 से मार्च 2021 के दौरान इस क्षेत्र में कुल 37.66 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश हुआ। फिर भी यदि टेलीकाॅम कंपनियां नकदी का रोना रो रही हैं तो इसमें कहीं ना कहीं उनकी नीयत का भी सवाल है। कुछ लोग इसे टेलीकाॅम सेवाओं की कीमत बढ़ाने के लिए मुहिम चलाने की बात कही जा रही है तो कुछ इसे सरकार को झुकाने की कोशिश के रूप में भी देखा जा रहा है।

BIKRAM UPADHYAY
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